शिव महिम्न स्तोत्रम्
शिव महिम्न स्तोत्रम् के लाभ
धर्म शास्त्रों के अनुसार सावन मास में शिव महिमा स्त्रोत का पाठ करने से से सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है। पुष्पदंत द्वारा रचित शिव महिम्न स्तोत्र शिव जी को अत्यंत ही प्रिय है। इसका पाठ करने वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है।
शिव महिम्न स्तोत्रम् का पाठ कैसे करे
हिन्दू धरम शास्त्रों के अनुसार सुबह जल्दी स्नान करके भगवन शिव की तस्वीर या शिवलिंग के सामने शिव महिम्न स्तोत्रम् का पाठ करे. सर्वप्रथम शिवलिंग का कच्चे दूध और जल से अभिषेक करे, तत्पश्चात धुप, दीप, पुष्प और नैवैद्य अर्पित करे , तत्पश्चात शिव महिम्न स्तोत्रम् का पाठ करे |
शिव महिम्न स्तोत्रम् हिंदी में अनुवाद सहित
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।।1।।
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि .
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः।। 2।।
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता।। 3।। हे वेद और भाषा के सृजक जब स्वयं देवगुरु बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने में असमर्थ हैं तो फिर मेरा कहना ही क्या? हे त्रिपुरारी! अपने सीमित क्षमता का बोध होते हुए भी मैं इस विश्वास से इस स्तोत्र की रचना करा रहा हूं। कि इससे मेरे वाने शुद्ध होगी तथा मेरे बुद्धि का विकास होगा।
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः।।4।।
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः।।5।। हे महादेव! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं ही भ्रमित हैं। इस प्रकार से तर्क-वितर्क द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिश करते हैं। वो कहते हैं कि अगर कोई परं पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं? वो कैसा दिखता है? उसके क्या साधन हैं? वो इस श्रृष्टि को किस प्रकार धारण करता है? ये प्रश्न वास्तव में भ्रामक मात्र हैं। वेद ने भी स्पष्ट किया है कि तर्क द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता। अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे।।6।। हे परमपिता! इस श्रृष्टि में सात लोक (भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, सत्यलोक,महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक) हैं। इनका सृजन भला सृजक यानी कि आपके) बिना कैसे संभव हो सका? ये किस प्रकार से और किस साधन से निर्मित हुए? तात्पर्य है कि आप पर संशय का कोई तर्क भी नहीं हो सकता है।
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।7।।
विवध प्राणी सत्य तक पहुचने के लिया विभिन्न वेद पद्धतियों का अनुसरण करते हैं। पर जिस प्रकार सभी नदी अंततः सागर में समाहित हो जाती है। ठीक उसी प्रकार हर मार्ग आप तक ही पहुंचता है।
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति।।8।।
हे शिव! आपके भृकुटि के इशारे मात्र से सभी देवगण ऐश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं। पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ बैल (नंदी), कपाल, बाघम्बर, त्रिशुल, नागमाला एवं भस्म हैं। अगर कोई संशय करे कि अगर आप देवों के असीम ऐश्वर्य के श्रोत हैं तो आप स्वयं उन ऐश्वर्यों का भोग क्यों नहीं करते? तो इस प्रश्न का उत्तर सहज ही है। आप इच्छा रहित हो। स्वयं में ही स्थित रहते हो।
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता।।9।।
हे त्रिपुरहंता। इस संसार के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई इसे नित्य जानता है। तो कोई इसे अनित्य समझता है। अन्य इसे नित्यानित्य बताते हैं। इन विभिन्न मतों के कारण मेरी बुध्दि भ्रमित होती है। पर मेरी भक्ति आप में और दृढ़ होती जा रही है।
तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुष।
ततो भक्तिश्रद्धा–भरगुरु–गृणद्भ्यां गिरिश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।।10।।
एक समय आपके पूर्ण स्वरूप का भेद जानने हेतु ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमशः ऊपर एवं नीचे की दिशा में गए। पर उनके सारे प्रयास विफल हुए। जब उन्होंने भक्ति मार्ग अपनाया तभी आपको जान पाएं। क्या आपकी भक्ति कभी विफल हो सकती है?
अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्बाहूनभृत–रणकण्डू–परवशान्।
शिरःपद्मश्रेणी–रचितचरणाम्भोरुह–बलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्।।11।।
हे त्रिपुरान्तक! दशानन रावण किस प्रकार विश्व को शत्रु विहीन कर सका? उसके महाबाहू हर पल युद्ध के लिए व्यग्र रहे। हे प्रभु! रावण ने भक्तिवश अपने ही शीश को काट-काट कर आपके चरण कमलों में अर्पित कर दिया, ये उसी भक्ति का प्रभाव था।
अमुष्य त्वत्सेवा–समधिगतसारं भुजवनं
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः।।12।।
हे शिव। एक समय उसी रावण ने मद् में चूर आपके कैलाश को उठाने की धृष्टता करने की भूल की। हे महादेव। आपने अपने सहज पांव के अंगूठे मात्र से उसे दबा दिया। फिर क्या था रावण कष्ट में रूदन करा उठा। वेदना ने पटल लोक में भी उसका पीछा नहीं छोड़ा। अंततः आपकी शरणागति के बाद ही वह मुक्त हो सका।
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः।।13।।
हे शम्भो! आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक ऐश्वर्यशाली बन सका।
तथा तीनो लोकों पर राज्य किया। हे ईश्वर ! आपकी भक्ति से क्या कुछ संभव नहीं हैं।
अकाण्ड–ब्रह्माण्ड–क्षयचकित–देवासुरकृपा
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन–भय–भङ्ग–व्यसनिनः।।14।।
देवताओं एव असुरों ने अमृत प्राप्ति हेतु समुंद्र मंथन किया। समुद्र से अनेक मूल्यवान वस्तुएं प्राप्त हुईं जो देव तथा दानवों ने आपस में बांट लिया। पर जब समुंद्र से अत्यधिक भयावह कालकूट विष प्रगट हुआ तो असमय ही श्रृष्टि समाप्त होने का भय उत्पन्न हो गया। और सभी भयभीत हो गए। हे हर! तब आपने संसार रक्षार्थ विषपान कर लियाा। वह विष आपके कंठ में निष्क्रिय होकर पड़ा है। विष के प्रभाव से आपका कंठ नीला पड़ गया।
हे नीलकंठ! आश्चर्य है कि ये विकृति भी आपकी शोभा ही बढ़ाती है। कल्याण का कार्य सुन्दर ही होता है।
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः।।15।।
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज–परिघ–रुग्ण–ग्रह–गणम्।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत–जटा–ताडित–तटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता।।16।। हे नटराज! जब संसार कल्याण के हित के हेतू आप तांडव करने लगते हैं। तो आपके पाँव के नीचे धारा कंप उठती हैं। आपके हाथों के परिधि से टकराकर ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं। विष्णु लोक भी हिल जाता है। आपके जटा के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोक व्याकुल हो उठता हैंं। हे महादेव! आश्चर्य है कि अनेकों बार कल्याणकारी कार्य भी भय उत्पन्न करते हैं।
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः।।17।।
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ–चरण–पाणिः शर इति।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः।।18।। हे शिव! आपने त्रिपुरासुर का वध करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य चन्द्र को पहिया एवं स्वयं इन्द्र को बाण बनाया। हे शम्भू ! इस वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता?हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहरजागर्ति जगताम्।।19।। जब भगवान विष्णु ने आपकी सहश्र कमलों (एवं सहस्र नामों) द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमल कम पाया। तब भक्ति भाव से हरि ने अपने एक आंख को कमल के स्थान पर अर्पित कर दिया। उनकी यही अदम्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लियाा । जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं।
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान–प्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः।।20।।
ऋषीणामार्ति्वज्यं शरणद सदस्याः सुर–गणाः।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल–विधान–व्यसनिनः
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः।।21।। हे प्रभु! यदपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तदपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेरित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसका परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है। दक्ष प्रजापति के महायज्ञ से उपयुक्त उदाहरण भला और क्या हो सकता है? दक्षप्रजापति के यज्ञ में स्वयं ब्रह्मा पुरोहित तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि शामिल हुएं। फिर भी शिव की अवहेलना के कारण यज्ञ का नाश हुआ। आप अनीति को सहन नहीं करते भले ही शुभकर्म के क्षद्मवेश में क्यों न हों।प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः।।22।। एक समय में ब्रह्मा अपनी पुत्री पर ही मोहित हो गया। जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरुप धारण कर भागने की कोशिश की। तो कामातुर ब्रह्मा ने भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे। हे शंकर! तब आप व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण ले ब्रह्मा की ओर कूच किया। आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा की ओर भाग निकले तथा आज भी आपसे भयभीत हैं।
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः।।23।।
हे योगेश्वर! जब आपने माता पार्वती को अपनी सहभागी बनाया तो उन्हें आपने योगी होने पे शंका उत्पन्न हुईं। ये शंका निर्मूल थी क्योंकि जब स्वयं कामदेव ने आप पर अपना प्रभाव दिखलाने की कोशिश की तो आपने काम को जला करा नाश्ता करा दिया।
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः।
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि।। 24।।
हे भोलेनाथ! आप श्मशान में रमण करते हैं। भुत-प्रेत आपके संगी होते हैं। आप चिता भस्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं। ये सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं। तब भी हे श्मशान निवासी! आपके भक्त आपके इस स्वरूप में भी शुभकारी एव आनंदायी प्रतीत होता है। क्यांेकि हे शंकर! आप मनोवान्छिता फल प्रदान करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते हैं।
मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्।।25।।
हे योगिराज! मनुष्य नाना प्रकार के योग्य पद्धति को अपनाते हैं। जैसे कि श्वास पर नियंत्रण, उपवास, ध्यान इत्यादि। हे महादेव! इन योग क्रियाओं द्वारा वो जिस आनदं, जिस सुख को प्राप्त करते हैं। वो वास्तव में आप ही हैं।
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि।।26।।
हे शिव ! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नि, जल एवं वायु हैं। आप ही आत्मा भी हैं। हे देव! मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों।
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्।। 27।।
हे सर्वेश्वर! ’’ऊँ’’ तीन तत्वों से बना हैं। अ, ऊ, माँ जो तीन वेदों (ऋग, साम, यजुर), तीन अवस्था (जाग्रत, स्वप्ना, शुसुप्ता), तीन लोकों, तीन कालों, तीन गुणों तथा त्रिदेवों को इंगित करता हैं। हे ओंकार ! आप ही इस त्रिगुण, त्रिकाल, त्रिदेव, त्रिअवस्था, और त्रिवेद के समागम हैं।
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते।। 28।।
हे शिव! विद एवं देवगन आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं। भव, सर्व, रूद्र , पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं इशान। हे शम्भू मैं भी आपकी इन नामों से स्तुति करता हूं।
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः।।29।।
हे त्रिलोचन! आप अत्यधिक दूर हैं और अत्यंत पास भी आप महा विशाल भी हैं तथा परम सूक्ष्म भी। आप श्रेष्ठ भी हैं तथा कनिष्ठ भी। आप ही सभी कुछ हैं साथ ही आप सभी कुछ से परे भी ।
बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः।
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः।।30।।
हे भव! मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपका नमन करता हूँ। हे हर! मैं आपको तामस गुण से युक्त, विलयकर्ता मान आपका नमन करता हूं। हे मृड! आप सतोगुण से व्याप्त सबका पालन करने वाले हैं। आपको नमस्कार है। आप ही ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश हैं। हे परमात्मा! मैं आपको इन तीन गुणों से परे जान कर शिव रूप में नमस्कार करता हूं।
श-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्।। 31।।
हे शिव! आप गुनातीत हैं और आपका विस्तार नित बढता ही जाता है। अपनी सीमित क्षमता से मैं कैसे आपकी वंदना कर सकता हूं? पर भक्ति से ये दूरी मिट जाती है। तथा मैं आपके कर कमलों में अपनी स्तुति प्रस्तुत करता हूं।
असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।।32।।
यदि कोई गिरि (पर्वत) को स्याही, सिंधु को दवात, देव उद्यान के किसी विशाल वृक्ष को लेखनी एवं छाल को पत्र की तरह उपयोग में लाएं। तथा स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती अनंतकाल आपके गुणों की व्याख्या में संलग्न रहें। तो भी आप के गुणों की व्याख्या संभव नहीं है।
असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार।।33।।
इस स्तोत्र की रचना पुष्पदंत गंधर्व ने उन चन्द्रमोलेश्वर शिव जी के गुणगान के लिए की है जो गुनातीत हैं।
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च।।34।।
जो भी इस स्तोत्र का शुद्ध मन से नित्य पाठ करता है। वो जीवन काल में विभिन्न ऐश्वर्यों का भोग करता है तथा अंततः शिव धाम को प्राप्त करता है तथा शिवातुल्या हो जाता है।
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्।। 35।।
महेश से श्रेष्ठ कोइ देव नहीं, महिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं। ऊँ से बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरू से ऊपर कोई सत्य नहीं।
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः।
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।।36।।
दान, यज्ञ, ज्ञान एवं त्याग इत्यादि सत्कर्म इस स्तोत्र के पाठ के सोलहवे अंश के बराबर भी फल नहीं प्रदान कर सकते हैं।
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः।
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः।।37।।
कुसुमदंत नामक गंधर्वों का राजा चन्द्रमोलेश्वर शिव जी का परं भक्त था। अपने अपराध (पुष्प की चोरी) के कारण वो अपने दिव्य स्वरूप से वंचित हो गया। तब उसने इस स्तोत्र की रचना करा शिव को प्रसन्न किया। तथा अपने दिव्या स्वरूप को पुनः प्राप्त किया।
सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-चेताः।
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ।।38।।
जो इस स्तोत्र का पठन करता है वो शिवलोक पाटा है तथा ऋषि मुनियों द्वारा भी पूजित हो जाता है।
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्।
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्।।39।।
पुष्पदंत रचित ये स्तोत्र दोषरहित है तथा इसका नित्य पाठ करने से परं सुख की प्राप्ति होती है।
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः।।40।।
ये स्तोत्र शंकर भगवान को समर्पति है। प्रभु हमसे प्रसन्न हों
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः।। 41।।
हे शिव ! मैं आपके वास्तविक स्वरुप् को नहीं जानताहूं। हे शिव आपके उस वास्तविक स्वरूप जिसे मैं नहीं जान सकता हूं,उसको नमस्कार है।
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते।।42।। जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वो पाप मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है।श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण ।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः।।43।। पुष्पदंत द्वारा रचित ये स्तोत्र शिव जी अत्यंत ही प्रिय है। इसका पाठ करने वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है।
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